असहयोग आंदोलन
गांधी के अफ्रीका से भारत आने के पांच साल भी
नहीं हुए थे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कमान पूरी तरह गांधी के हाथ में आ गयी
थी | पूर्व से पश्चिम और उत्तर से
दक्षिण तक कहीं भी किसी बडे आंदोलन की जरूरत हो हर तरफ गांधी के नेतृत्व की बात
उठती थी | कहने के
लिए पंजाब में लाला लाजपत राय, बम्बई में लोकमान्य तिलक,
कलकत्ता में देशबंधु, मद्रास में राजाजी और
इलाहाबाद में मोतीलाल नेहरू आदि बहुत से नेता सक्रिय थे लेकिन खेडा से लेकर चंपारन
तक के आंदोलन में जैसी सफलता गांधी को मिली थी वैसी 1885 में
कांग्रेस के बनने से 1915 में गांधी के आने तक कभी नहीं मिली
थी |
गांधी के आने का सबसे बडा लाभ कांग्रेस को यह
हुआ था कि गांधी की वजह से आम भारतीय कांग्रेस से गहरे जुडने लगे थे | यही कारण था कि गांधी के आव्हान पर 1920 में
देशव्यापी असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई थी जिसने पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ कर
अंग्रेजी शासन को ऐसी ऐतिहासिक चुनौती दी थी जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी
| कांग्रेस के 1920 के नागपुर अधिवेशन में अहिंसक मार्ग से स्वराज प्राप्ति का लक्ष्य रखा गया
था | इसके बाद पूरे
देश में असहयोग आंदोलन की जबरदस्त लहर चल पडी थी | इसी दौरान 1 अगस्त 1920 को तिलक की मृत्यु हो गई थी | बम्बई की चौपाटी पर उनका अदभुत दाह संस्कार हुआ था जिसमें अपने प्रिय नेता
को अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए बेतहासा भीड़ जुटी थी | "स्वराज मेरा जन्म सिद्ध
अधिकार है " नारा देने वाले तिलक के काम को आगे बढ़ाने के लिए गांधी ने स्वराज
फंड में एक साल के अंदर एक करोड़ की बडी दान राशि जुटाने का लक्ष्य रखा था
| कठिन दिखाई देता यह
लक्ष्य भी गाँधी और उनके साथियों के सहयोग से समय रहते पूरा हो गया था | कलकत्ता से 31 जुलाई 1921 को तार से देशबंधु ने सूचित किया था कि
बंगाल से 15 लाख मिलने से लक्ष्य से अधिक राशि एकत्र हो गई
है | गांधी की
लोकप्रियता का यही आलम था कि पारस की तरह वह जिस काम में हाथ डालते वह तदनुरूप
पूरा हो जाता था |
असहयोग आंदोलन में नेता और जनता दिल खोल कर
समर्थन दे रहे थे | नेताओं में त्याग और सादगी की
होड़ लगी थी मानो इन दो मूल्यों में सब एक दूसरे से आगे निकलने की कौशिश कर रहे
हैं | देशबंधु
चितरंजन दास ने वकालत के साथ कोठी और अन्य संपत्ति का त्याग कर दिया था | उनकी पत्नी वासंती देवी ने मिट्टी के बर्तन में
भात पकाया था | देश
भ्रमन के दौरान विशेष रूप से ग्रामीण देशवासियों की भयंकर गरीबी का साक्षात्कार
होने पर 21 सितम्बर 1921 में मद्रास की
सभा में गांधी ने ऊपर का वस्त्र त्याग केवल घुटने तक की आधी धोती और चप्पल पहन
स्वैच्छिक गरीबी अपनाकर सबको चौंका दिया था | इस दिन के बाद गांधी आजीवन एक
गरीब देहाती किसान और मजदूर की वेशभूषा ही पहनते रहे | यहां तक कि जब उन्हे गोलमेज
सम्मेलन में कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए इंग्लैंड जाना पडा तब भी उन्होंने
अपने लिबास में कोई परिवर्तन नहीं किया |
इस दौरान बिहार में चंपारन आंदोलन में अग्रनी
भूमिका निभाने वाले राजेन्द्र प्रसाद और बृजकिशोर बाबू ने भी जमीदारी छोड दी | बृजकिशोर बाबू की पुत्री प्रभावती को, जिनकी शादी
बाद में जयप्रकाश नारायण से हुई, गांधी और कस्तूरबा ने अपना
लिया | स्वदेशी
शिक्षा के विकास के लिए देश मे पांच विधापीठ अहमदाबाद, बनारस,
पटना ,पूना और दिल्ली (जामिया मिलिया) में
स्थापित की गई |
त्रिलोकी सिंह आदि विद्वानों का मानना है कि
यदि गांधी के असहयोग आंदोलन में हिंसा के कारण बीच में व्यवधान नहीं हुआ होता तो
देश 1923 में ही
आजाद हो सकता था और उस समय देशबंधु पहले प्रधान मंत्री बनते | नियति को शायद आजादी के लिए
भारतीय जनता को काफी इंतजार कराना था इसलिए असहयोग आंदोलन को अचानक बीच में ही
रोकना पडा |
- राकेश कुमार पालीवाल
rkpaliwal1986@yahoo.co.in
No comments:
Post a Comment